रैन बसेरा: सर्द रातों का सहारा.......

नौकरी की तलाश में 37 साल  के रमाकांत (बदला हुआ नाम) दिल्ली आते हैं । जिस इंसान ने नौकरी की उम्मीद देकर उसे बुलाया था, वह भी निराश कर देता है। दिल्ली जैसे शहर में थक-हार कर बैठे रमाकांत के सामने सबसे बड़ी समस्या रहने और खाने की थी, खाना तो जैसे-तैसे हो गया पर किसी होटल में रहना जेब की सेहत के लिए अच्छा नहीं था। कड़ाके की सर्दी बाहर कहीं फुटपाथ पर सोने के लिए रजामंदी नहीं दे रही थी, तभी उसे याद आता है “रैन बसेरा”

सालों से कई राज्य सरकारें , गैर सरकारी संगठनों (N.G.O.'s)  की सहायता से रैन बसेरा बनाकर बेघर और असहाय लोगों की मदद करती है। दिल्ली में करीब 150  रैन बसेरे बने हुए हैं, जिनमें हजारों लोग रोज रात और दिन में अपनी जरूरत के अनुसार ठहरते हैं ।

रमाकांत जब वहां पहुंचता है ,तो आसपास के लोगों को बातचीत करता हुआ सुनता है कि जगह नहीं है, जब अंदर जाकर रैन बसेरा प्रमुख से बात करता है तब  वह भी यही बात कहता है कि जगह नही है और पास के हीं एक दूसरे रैन बसेरे को जानकारी दे देता है।

अब रमाकांत वहीं खड़े कुछ लोगों के साथ अगले रैन  बसेरे की ओर चल पड़ता है, रास्ते में साथ चल रहा बलवीर कहता है कि यह रोज का हीं है, पिछले साल भी यहां यही हाल था जो गद्दे कंबल एक बार आ गए वही बिना धुले लगातार उपयोग करवाए जाते है, और ज्यादातर समय तो ये सब बसेरे खाली ही नहीं मिलते है।

अपने साथियों के साथ रमाकांत बसेरे पर पहुंच कर देखता है कि यहां भी भीड़ है ,बसेरे के प्रभारी से बात  करता है तो वह इन सब से आधार कार्ड की मांग करता है| सभी अपने आधार कार्ड देते हैं और उन सभी को रुकने के लिए पलंग मिल जाता है, साथ हीं स्वच्छ जल और भोजन की भी उपलब्धता होती है|  साफ सफाई को देखकर रमाकांत का मन बहुत खुश होता है और वह आराम से सो जाता है।

यह तो एक  रमाकांत की कहानी है , लेकिन आज भी दिल्ली और कई बड़े शहरों में इस सर्दी में भी कई लोग फुटपाथ पर सोते नजर आते हैं, उन लोगों को भी देखने की जरूरत है। सरकार और संगठन इस क्षेत्र में महत्वपूर्ण काम कर रहे है पर सोचना यह है कि क्या ये प्रयास सम्पूर्ण है?

  हजरत निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन के करीब स्थित रैन बसेरे के प्रमुख बताते हैं कि यहां हर रोज 500 से 700 लोग नए आते हैं और उन सभी के लिए गद्दे कंबल चद्दर की व्यवस्था की जाती है। हम अपनी पूरी क्षमता के साथ प्रयास करते हैं कि किसी को कोई भी कष्ट न हो ,पहले भोजन की व्यवस्था नहीं थी लेकिन अब भोजन की और स्वच्छ पेयजल, नहाने-धोने की व्यवस्था भी है | साथ में ही हम हफ्ते -10 दिन में मेडिकल कैंप भी लगवाते हैं, जिसमें सभी की सामान्य जांच होती है और मेडिकल इमरजेंसी की स्थिति में एंबुलेंस से अस्पताल ले जाते हैं। हमारा प्रयास ये रहता है कि ठंड की वजह से किसी भी इंसान की जान न जाए और न हीं किसी को ठंड में अपनी रात बाहर गुजारनी पड़े, लेकिन तब भी लोग फुटपाथों पर सोते हैं क्योंकि लोग इतनी ज्यादा संख्या में आ जाते हैं कि संसाधन कम पड़ जाते हैं और सबके लिए उचित व्यवस्था करना आसानी नहीं है।इन सब के बावजूद रैन बसेरों से लोगों को बहुत सहायता होती है।

आर.के. पुरम मेट्रो के पास फुटपाथ के नीचे सोने वाले मोहम्मद सलीम बताते हैं कि रैन बसेरों में जाना सही तो रहता है पर कई बार इंसान को अपनी इज्जत ज्यादा प्यारी होती है , वहां पर मौजूद लोगों का व्यवहार आने वाले लोगो को लेकर ठीक नहीं है। खाने पीने और रहने से ज्यादा जरूरी इंसान का व्यवहार होता है और वह ठीक नहीं है,  पास ही बैठे रघु कहते है कि वहां खाने पीने की व्यवस्था ठीक है लेकिन कई बार खाना ऐसा मिलता है जो कि खाने लायक नहीं होता है बांकी व्यवस्थाएं ठीक हैं लेकिन लोग ज्यादा हो जाते हैं तो सारी व्यवस्था ठप्प पड़ जाती है, साफ सफाई रहती तो है लेकिन उसको बेगार जैसे किया जाता है और जगह भी कई बार नहीं मिलती है तो यहीं सोना पड़ता है ।

दिल्ली जैसे बड़े शहर ,जहां रोज हजारों लाखों नये लोग आते हैं और यहीं के होकर रह जाते हैं , उनमें से कई लोगों की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं होती है |उनके लिए रहने-खाने की व्यवस्था करना कठिन काम है , ठेले वाले, मजदूर, ऑटो वाले , रिक्शे वाले  कई ऐसे लोग होते हैं जिनकी व्यवस्था रैन बसेरों में हीं होती है, बहुत सारे लोगों को तब भी फुटपाथ पर सोना पड़ जाता है। मानवाधिकार सभी लोगों के लिए है तो सरकारों को अपने प्रयासों में तेजी से वृद्धि करने कि जरूरत है जिससे किसी भी इंसान को सर्दी या किसी भी मौसम में सड़क किनारे या स्टेशन के बाहर न सोना पड़े, तभी जाकर दिल्ली और अन्य शहरों के सभी मानव अपने मानवाधिकारों को सही अर्थों में प्राप्त कर पाएंगे ।

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Upendra Thapak

भारतीय जन संचार संस्थान में विद्यार्थी