क्या अटल की नीति, मोदी सरकार पर पड़ेगी भारी ?

            दिल्ली का प्रसिद्ध रामलीला मैदान एक बार फिर लोगो की भीड़ से भरा हुआ है, जहां कई राज्यों में सरकारी नौकरी करने वाले लोग अपनी मांगों को लेकर बैठे हुए है। इसकी मीडिया में बाते भले ही कम हो, पर राजनीतिक गलियारों में चर्चा जरूर है। जंतर मंतर हो या रामलीला मैदान या फिर किसी और राज्य का कोई धरना स्थल, लगभग हर जगह एक मुद्दा चल रहा है। नेशनल पेंशन स्कीम (एन.पी.एस) और ओल्ड पेंशन स्कीम (ओ.पी.एस)। 

  

राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने ओल्ड पेंशन स्कीम को लेकर राजनीतिक उठापटक का जो दौर शुरू किया था, वह आज अपने चरम पर पहुंचता नजर आ रहा है। केंद्र सरकार ने जहां एन.पी. एस. पर ही टिके रहने का फैसला किया है| वही राज्यों में और दिल्ली में चल रहे प्रदर्शन को धीरे-धीरे जन समर्थन प्राप्त हो रहा है।यह आने वाले दिनों में होने वाले विधानसभा और लोकसभा चुनावों में एक नया मुद्दा हो सकता है।  

  

आखिर क्या है, नई पेंशन स्कीम और पुरानी पेंशन स्कीम? 

   

 रामलीला मैदान में बैठे रामकिशन (बदला हुआ नाम ) कहते है कि पुरानी पेंशन में जहां सरकार कर्मचारी के अंतिम 10 महीने के वेतन के औसत का 50 % या आखिरी वेतन का 50 % पेंशन के रूप में देती थी साथ ही में वेतन आयोग और महंगाई भत्ता के फायदे भी मिलते थे  और कर्मचारी की मृत्यु के बाद उसकी पत्नी को उसकी पेंशन का 30 प्रतिशत मिलता है । 

नई पेंशन स्कीम में  व्यक्ति की वेतन का 10 % हिस्सा कट कर नेशनल पेंशन फंड में  जमा होता है और  सरकार उसकी वेतन का 14 % कर्मचारी के फंड में जमा करती है । 

पेंशन फंड एंड रेगुलेटरी अथॉरिटी इस फंड की देख भाल करती है, और इन पैसों को शेयर मार्केट में इन्वेस्ट करती है। रिटायरमेंट के बाद फंड का 60 फीसदी हिस्सा कर्मचारी निकाल सकता है , बाकी बचे पैसे से उसकी मासिक पेंशन तय होती है।  सरकार की किसी भी प्रकार की भूमिका  इसमें नहीं होती है और न ही फिर सरकार किसी तरह का अन्य कोई फायदा जैसे महंगाई भत्ता या वेतन आयोग के फायदे देगी । 

  

क्या कर्मचारियों को बाज़ार भरोसे छोड़ना सही? 

  

एन.पी.एस को जब एनडीए सरकार द्वारा साल 2004 में लागू किया गया था , तब लगभग सभी पार्टियों (कम्युनिस्ट पार्टी छोड़कर) ने इसे अपनाया था और अपने अपने शासित राज्यों में इसे लागू भी किया था। लेकिन उस समय सरकारी सेवाओं में आए लोगो ने अपने संगठन बनाए और आज इस संख्या में है कि वो अपनी बात को ऊपरी स्तर तक पहुंचा सके।

  

धरने पर बैठी भावना (बदला हुआ नाम) कहती है कि जब साल 2005 में उनकी नौकरी शुरू हुई थी तो इस विषय में कोई ज्यादा जानकारी नहीं थी और ना ही उन लोगो का कोई संगठन या जान पहचान थी। जैसे-जैसे नई पेंशन स्कीम में शामिल लोगों को जब पेंशन मिलना शुरू हुआ तब उन्हें इसके लुकसान पता चलें। भावना का कहना है कि ये कुछ ऐसा है कि सरकार आपको बाजार के सहारे छोड़कर आगे बढ़ जाना चाहती है। नौकरी में सबसे ज्यादा वेतन अंतिम वर्षों में होता है तो अगर किसी कि नौकरी कुछ सालों बाद लगती है तो उसके फंड में और उसी के साथ काम करने वाले व्यक्ति के फंड की राशि में बहुत अंतर हो जायेगा, जिससे एक ही पद से रिटायर हुए लोगों की पेंशन में बहुत अंतर होगा। इसके साथ ही अगर किसी के रिटायर होते समय बाजार में मंदी आ गई तो उसको जीवन के आखिरी समय में काफी समस्याओं का सामना करना पड़ेगा। 

  

केंद्र सरकार का कहना है कि ओल्ड पेंशन स्कीम को लागू करने पर राजकोष पर अतिरिक्त दवाब बढ़ेगा। लेकिन किसान सम्मान निधि और मनरेगा जैसी योजनाओं को लागू करते समय भी इसी तरह की बाते हुई थी लेकिन इन योजनाओं के परिणाम सकारात्मक रहे है। 

आने वाले चुनावों को देखते हुए विपक्ष ने इस मुद्दे को हवा देने का काम शुरू कर दिया है। मध्यप्रदेश में कांग्रेस ने सत्ता में आने पर ओ.पी.एस. बहाल करने की घोषणा कर दी है।  वहीं पंजाब, हिमाचल,छत्तीसगढ़ जैसे राज्य ओ. पी. एस. को लागू कर चुके है। 

इन सब के बीच केंद्रीय वित्तमंत्री निर्मला सीतारमन ने ओ.पी.एस. के मामले पर सवाल का जवाब देते हुए कहा कि ये राज्यों का अपना फैसला है तो वे केंद्र से सहायता की उम्मीद न रखें। पेंशन फंड में जो पैसा जमा हुआ है वो कर्मचारियों को दिया जाएगा न की राज्य सरकारों को। 

राजनीतिक खींचतान के बीच पिस रहे है  वो लोग जो अपने भविष्य की चिंता को लेकर विभिन्न धरना स्थलों पर बैठे हुए  है । चुनावी माहौल में अब देखना यह है कि इनकी किस्मत का ऊंट किस करवट बैठता है । 

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Upendra Thapak

भारतीय जन संचार संस्थान में विद्यार्थी