पेट की भूख रोजगार की चाह और बेहतर जीवन शैली की तलाश व्यक्ति को अपना घर और शहर छोड़ने को मजबूर करती हैं । हमारे देश की राजधानी दिल्ली उन शहरों में से एक है ,जहाँ पर लगभग पूरे देश से लोग रोजगार की तलाश में आते है ,और फिर यही के होकर रह जाते है।
हाल ही के दिनों में सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटी ने अपने सर्वे मे बताया कि अधिकांश लोग (45.5) 10 वर्षो से अधिक समय से यहाँ रह रहे है ,जबकि 28% का जन्म यही हुआ है । इस सर्वे के मुताबिक दिल्ली कि झुग्गी बस्तियों और अनाधिकृत बस्तियों मे ज्यादातर लोग बिहार तथा उत्तर प्रदेश से है ,और इनमे से अधिकतर लोग काम कि तलाश मे ही दिल्ली आये हैं।
जिसका सपना लेके आये क्या मिली वैसी जीवन शैली ?
एक बेहतर जीवन की तलाश मे आये लोग जब शहरों में आते है। यहाँ उनका सामना एक भयावह सच से होता है ,झुग्गी झोपडी में घर और भोजन का ठिकाना नहीं होता है ।प्रदुषण कि घनी चादर ओढ़े हवा सांस लेना तथा जीवन जीना तक मुहाल कर देती हैं । ज्यादातर घरो में रहने की व्यवस्था भी नहीं होती है ,यह कुछ इसी तरह होता है जैसे जंगल में स्वछंद विचरने वाले शेर को किसी सर्कस में रख दिया जाए , यहाँ पढ़ने के लिए आने वाले विद्यार्थियों की हालत भी कुछ ज्यादा अलग नहीं है उन्हें भी लगभग इन्ही समस्याओ का सामना करना पड़ता है।
कोविड ने दिखाया आईना-
बड़े शहरों की भयावह तस्वीर को पूरे देश ने कोरोना के समय देखा ही है ,जब बिना सही संख्या के ये प्रवासी लोग अपने घर ( राज्य )जाने के लिए विवश हो गए , आखिर कौन भूल सकता है वह तस्वीरें जब लोग पैदल ही हज़ारो किलो मीटर की दूरी तय करने के लिए निकल पड़े थे,
लौटते हुए उनको जो परेशानी हुई उसकी जिम्मेदारी किसकी हुई?
देश की इकोनॉमी की रीढ़ कही जाने वाली फैक्ट्रीयो की धमनियां हम इन प्रवासियों को कह सकते है जिनकी वजह से फैक्ट्रीया तथा देश आज आगे बढ़ पा रहा है , कोरोना के समय इन्ही लोगो के साथ परायों जैसा बर्ताव किया गया उस समय इन लोगो के उपर हुई राजनीती अपने आप में एक काला अध्याय है , रेल की पटरियों पर चलते सड़कों के किनारे पर चलते अपने समान को सर पर रखे लोग मानवता की दुहाई देने वालो के लिए एक सबक के समान थे और आज भी जब आप रेल्वे स्टेशन पर जाते है तो वहां पर उमड़ती भीड़ को देखकर तो यही लगता है , कि काश कुछ ऐसा हो की इन लोगो को अपने घरों से अपने राज्य से बाहर आना ही ना पड़े ।
दिल्ली के सरकारी अस्पतालों की हालत किसी से छिपी नहीं है आप जब भी एम्स या किसी बड़े हॉस्पिटल की तरफ जायेंगे तो देखेंगे कि दिन में लगी पंक्तियां और रात में उन्ही पंक्तियों पर लेटे हुए लोग चाहे कड़कड़ाती ठंड ही क्यों न हो आपको मिल ही जायेंगे कई हफ्तों पहले के लगे नंबर हफ्तों बाद मिलते हैं , हालात इतने विकट है कि दिल्ली के मुख्यमंत्री को कहना पड़ गया की उत्तर प्रदेश और बिहार से आने वाले लोगो दिल्ली के अस्पतालों में भीड़ का कारण है एक हद तक वे सही भी है लेकिन क्या जब स्वस्थ लोग राजधानी आते है तक भी यही बाते होती ।
सी. एस. डी. एस. के सर्वे में लोगो से पूछा गया तो पता चलता है की आने वाले लोगो में से 60 प्रतिशत हाई स्कूल पास है और शादी के बाद वह अपने परिवार के साथ आकर बस गए है , लोग जब घर द्वार छोड़ कर यहां आते है तो सरकार द्वारा शुरू की गई कई योजनाओं का लाभ भी इन्हे नहीं मिल पाता है सालो साल यहां रहकर भी लोगो के पास यहां का वोटर कार्ड न होकर अपने राज्य का होता है और अपने राज्य का चुनाव उनके लिए इतना आवश्यक भी नहीं रह जाता कि वो हजारों रुपए खर्च करके वोट डालने जाए ।
भारतीय वोटिंग प्रतिशत का 70 प्रतिशत तक भी न पहुंच पाने का सबसे बड़ा कारण यही है।
हर तरह के लोग हर तरह की विरासत लिए दिल्ली पहुंचते है और यहां पर अपनी जड़ों से जुड़े रहते है, और वो एक मिली जुली संस्कृति को बढ़ावा देने लगते है , कई बार ये सब मुद्दे मूल निवासियों को अपने अस्तित्व पर संकट की तरह लगते है , महाराष्ट्र में उत्तर प्रदेश बिहार और दक्षिण भारतीय लोगो के विरुद्ध पनपी एक लहर इसका ही परिणाम था ।
दक्षिणी दिल्ली में प्रवासियों की हिस्सेदारी सबसे ज्यादा है दिल्ली के सीमावर्ती क्षेत्रों में सबसे ज्यादा प्रवासी रहते है , उत्तर भारत के लोगो के लिए दिल्ली एक बड़ा शिक्षा का केंद्र है जबकि दक्षिण भारतीयों के लिए ये बात काम के सिलसिले में सही बैठती है।
इस समस्या का समाधान परस्पर सहयोग और सभी जगहों का संपूर्ण विकास ही है हमे क्षेत्रवाद की जगह एक देश की भावना के साथ काम करना चाहिए।
एक पहाड़ी कवि की कुछ पंक्तियां -
सड़क तुम अब आई हो गांव , जब सारा गांव शहर जा चुका है।
सड़क मुस्कराई सचमुच कितने भोले हो भाई पत्थर, लकड़ी, और खड़िया तो बची है न!
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